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शिव सर्पों को आभूषण के रूप में क्यों धारण करते हैं ?

bhagwan shiv sarpon ko aabhushaan ke roop mein kyon dharan krate hain ?

शिव सर्पों को आभूषण के रूप में क्यों धारण करते हैं ?

शिव सर्पों को आभूषण के रूप में क्यों धारण करते हैं ? : संसार में जो कुछ भी अनाकर्षक है व असुन्दर है। और जिसे संसार ने ठुकराया उसे भगवान शिव ने अपनाया। जैसे-कालकूट विष, आक-धतूरा, श्मशान, राख, और सर्प। सर्पों की परोपकारता से भगवान शिव ने उन्हें अपने गले का हार बना लिया।

‘शिव’ शब्द दो अक्षरों से मिल कर बना है शि+व। ‘शि’ का अर्थ है मंगल और ‘व’ कहते हैं दाता, इसलिए जो मंगलदाता हैं वही शिव हैं। ‘शं’ आनन्द को कहते हैं और ‘कर’ से करनेवाला। अत: जो आनन्द करता है वही ‘शंकर’ है। शिव और शंकर-दोनों का अर्थ है-संसार का कल्याण और मंगल करने वाला।

भगवान शिव के सर्प आभूषण-

भगवान शिव सर्पों का मुकुट, सर्पों के कंकण व बाजूबंद, कमर में भी सर्प और गले में नागहार धारण करते हैं। शिव लिंग पर ही जलहरी में सर्प बना होता है। भगवान शिव और सर्प/नाग दोनों ही संसार का कल्याण करने वाले हैं।

भगवान शिव की दयालुता-

देवताओं और असुरों के द्वारा समुद्र-मंथन के समय सर्वप्रथम उसमें से हलाहल विष प्रकट हुआ, जिससे सारा संसार जलने लगा। इस पर भगवान विष्णु ने शंकरजी से कहा-आप देवाधिदेव और हम सभी के अग्रणी महादेव हैं। इसलिए समुद्र-मंथन से उत्पन्न पहली वस्तु आपकी ही होती है। हम लोग सादर उसे आपको भेंट कर रहे हैं।

देवता और दानव भी विष की ज्वाला से बचने के लिए भगवान शंकर से विनती करने लगे- हे शिव ! काल आपके अधीन है, आप काल से मुक्त चिदानन्द हैं। जिसे मृत्यु को जीतना हो, उसे आपमें स्थित होना चाहिए। आपका मन्त्र ही मृत्युज्जय है। हमें इस संकट से बचाइए।

भगवान शिव सोचने लगे-यदि सृष्टि में मानव समुदाय में कहीं भी यह विष रहे तो प्राणी अशान्त होकर जलने लगेगा। इसे सुरक्षित रखने की ऐसी जगह होनी चाहिए कि यह किसी को नुकसान न पहुंचा सके। यदि हलाहल पेट में चला गया तो मृत्यु निश्चित है और यदि बाहर रह गया तो सारी सृष्टि भस्म हो जाएगी, इसलिए सबसे सुरक्षित स्थान तो स्वयं मेरा ही कण्ठप्रदेश है।

भगवान शिव द्वारा विष (हलाहल) का पान-

इस प्रकार राम-नाम का आश्रय लेकर महाकाल ने महाविष को अपनी हथेली पर रखकर आचमन कर लिया किन्तु उसे मुंह में लेते ही भगवान शिव को अपने उदरस्थ चराचर विश्व का ध्यान आया और उन्होंने उस विष को अपने गले में ही रोक लिया, नीचे नहीं उतरने दिया जिससे उनका कण्ठ नीला हो गया, जो दूषण (दोष) न होकर उनके लिए भूषण हो गया।

इस प्रकार संसार के कल्याण के लिए भगवान शिव ने विषपान कर लिया।भगवान शिव के समान उनके आभूषण सर्प भी संसार के लिए बहुत कल्याणकारी है। सर्प और नाग देवकोटि के प्राणी हैं। उनकी सृष्टि भी उन्हीं दयामय परमात्मा ने की है जिन्होंने मनुष्यों को बनाया है। सर्पों की सृष्टि हमें हानि पहुंचाने के लिए नहीं है।

सर्प वायुपान करते हैं और पर्यावरण में व्याप्त विषाक्त गैसों का पान कर वे स्वयं विषैले हो जाते हैं। इस प्रकार वे विषाक्त गैसों से संसार की रक्षा करते हैं। साथ ही पर्यावरण को संतुलित रखते हैं। यदि विधाता ने सर्पों को विषैली गैसों का पान करने वाला नहीं बनाया होता। यह पृथ्वी कितनी विषाक्त हो गई होती, हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते।

  • संसार के कल्याण के लिए भगवान शिव विष पीकर ‘नीलकण्ठ’ हो गए और सर्प और नाग वातावरण की विषैली गैसें पीकर विषैले हो गए। सर्पों के संसार पर इसी उपकार को देखकर भगवान शिव ने उन्हें अपना आभूषण बना लिया और ‘व्यालप्रिय’ व ‘भुजंगभूषण’ कहलाए।
  • भगवान शिव को ‘मृत्युंजय’ कहते हैं। मृत्युंजय होने के कारण मृत्यु की भी मृत्यु, काल के भी काल तथा यम के भी यम हैं। जिस वस्तु से जगत् की मृत्यु होती है, उसे वह जय कर लेते हैं और उसे प्रिय मानकर ग्रहण करते हैं। नाग और सर्पों को काल और मृत्युरूप माना जाता है, महाकाल होने से भगवान शिव ने सर्प/नाग को अपना आभूषण बना लिया। कालकूट विष, नाग का यज्ञोपवीत और गले में सर्पमाला धारण कर भगवान शिव ने अपनी मृत्युंजयता प्रकट की है।
  • भगवान शिव के कण्ठ में विष है और सर्प वायु रूप में विषपान करते है। हो सकता है कि भगवान शिव के कण्ठ की विषाग्नि की पीड़ा को नाग वायु रूप में पीकर कम कर देता हो, इसलिए भगवान शिव ‘नागेन्द्रहाराय’ बन गए।
  • शिव ही एक ऐसे महादेव हैं जिन्होंने संसार में जो कुछ भी अनाकर्षक है व असुन्दर है और जिसे संसार ने ठुकराया उसे भगवान शिव ने अपनाया। जैसे—कालकूट विष, आक-धतूरा, श्मशान, राख, सर्प, भूत-प्रेत, दैत्य, दानव, डाकिनी, शाकिनी आदि। तामस से तामस जीव भी उनकी सेवा में तत्पर हैं यही उनके परमेश्वर होने को सिद्ध करता है। इसीलिए शिव मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों, देव, दानव आदि के संयुक्त उपास्य देव कहे जाते हैं।
  • संसार के कोलाहल से दूर रहकर मृदंग, शृंग, घण्टा, डमरू के निनाद में मग्न रहना यानि अपनी आत्मा, ब्रह्म में स्थित रहना ही शंकर की समाधि है। कण्ठ में काला नाग चिर समाधि-भाव का प्रतीक है। भगवान शिव तमोगुण (अहंकार) के देव हैं और नाग भी तमोगुण को दर्शाते हैं। इसलिए तमोगुण के प्रतीक नाग को भगवान ने अपना कण्ठहार बना लिया।
  • शिवजी भूतपति कहलाते हैं-अर्थात् संसार के सभी प्राणियों के स्वामी-चाहे, वह अच्छा हो या बुरा। सांप के दो जीभें होती हैं, चुगलखोर के भी दो जीभें कही जाती हैं। एक पिता कपूत से भी प्रेम करता है वैसे ही भूतपति होने से भगवान शिव सर्प को भी गले का हार बना लेते हैं।
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Categories: Shiv Bhajan

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