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भजु मन राधा राधा राधा राधा राधा राधा।

भजु मन राधा राधा राधा राधा राधा राधा।

भजु मन राधा राधा राधा, राधा राधा राधा।
रसना नित रस पिवु बिनु बाधा, नाम सुधा रस राधा, राधा राधा राधा।
श्रवन सुनहु नित लीला राधा, अगनित गुन गन राधा, राधा राधा राधा।

त्वचा सुमिरु नित चरनन राधा, जेहि हरिहूँ अवराधा, राधा राधा राधा।
नैनन ध्यान नित्य छवि राधा, लखहु जितै तित राधा, राधा राधा राधा।

नासा ध्यान करहु नित राधा, दिव्य गंध तनु राधा, राधा राधा राधा।
मन धरु ध्यान रैन दिन राधा, जेहि छवि सम छवि राधा राधा राधा राधा।

बुधि प्रतीति दृढ़ इक दिन राधा, अपनेहें मोहि राधा, राधा राधा राधा।
प्रेम अकाम रहे नित राधा, सुख मानहु सुख राधा, राधा राधा राधा।

चहहु ‘कृपालु’ कृपा जो राधा, कृष्णहुँ भजु सँग राधा, राधा राधा राधा।

भावार्थ – अरे मेरे मन ! निरन्तर श्रीराधा का ही सेवन कर। जिह्वा से अनवरत राधा नामामृत का पान कर। नाम-स्मरण करने में भला क्या विघ्न उपस्थित हो सकता है? श्रीराधा अनन्त दिव्य गुण-गण से विभूषित हैं।

अत: कानों से निरन्तर उनकी लीला का श्रवण कर उनके गुणानुवाद सुन। कोमल स्पर्श की कामना जब उत्पन्न हो तो श्रीराधा के कमलोपम चरणों का स्मरण कर श्रीकृष्ण भी इन चरणों की आराधना करते हैं।

नेत्रों से पल-पल श्रीराधा की दिव्य मूर्ति का ध्यान कर दसों दिशाओं में उनका ही दर्शन कर नासिका से श्रीराधा के दिव्य वपु के सुवास को ग्रहण कर हे मेरे चंचल मन ! तू श्री राधा के निरुपम सौन्दर्य का ही चिन्तन कर।

श्रीराधा के समान तो श्रीराधा ही हैं। बुद्धि में ऐसी दृढ़ता रहे कि एक दिन मैं अवश्य ही उनकी कृपा को प्राप्त करूँगा। श्रीराधा के प्रति जो प्रीति हो, उसमें अपने स्वार्थ की गंध न हो।

श्रीराधा के हितार्थ ही, उनके सुख में सुख मानते हुए उनके प्रति निष्काम प्रेम की भावना स्थिर करनी है। श्री कृपालु जी महाराज कहते हैं- यदि श्री राधा की कृपा प्राप्त करनी है तो उनके प्रियतम कृष्ण की भी भक्ति करनी होगी।


श्री वृन्दावन श्रीवृन्दावन महिमामृतम् द्वादश शतकम् :

कुर्व्वन्नैव वृथाग्रहं क्वचिदपि द्वैतेऽत्र मायामये
स्वस्यात्यन्त सुदुखतोऽपि जनयन् कस्यापि नैवाप्रियम्।
नित्यान्तर्मुखदृष्टिरेक रसधीः श्रीराधिकाकृष्णयोः
श्रीवृन्दावनमावसानि सकल प्राण्यैक सद्वल्लभः।। 8 ।।

भावार्थ – इस मायिक द्वैत वस्तुओं में कभी भी वृथा आग्रह न करते हुए, अपने अति दुसह दुख में भी अन्य किसी की कुछ भी बुराई न करके, अन्तर्दृष्टि रखते हुए श्रीराधाकृष्ण के रस में ही एक मात्र चित्त को स्थापन करके, समस्त प्राणियों का एक मात्र भला करते हुए क्या में श्री वृन्दावन में वास कर पाऊंगा? ।। 8 ।।


स्त्रीषु स्तन्यप-तोकवत् स्वतिथिवद्गेहेऽथदेहेऽपि च
द्वेषं सन्ततमाचरत्स्वपि तनु वाणी हृदा मित्रवत्।
राधापन्नख चन्द्रिकांचित लता वृक्षे चकोरश्चरन्
श्रीवृन्दाविपने भवानि सकल प्राणिष्वह मातृवत्।। 9 ।।

भावार्थ – स्त्री गुणों के लिये दुग्धपायी बालक की तरह, अपने घर में अतिथिवत, अपने शरीर में निरन्तर द्वेष करने वालों के प्रति काय, मन, वाणी से मित्रों के समान, श्रीराधा पद-नख ज्योत्स्ना से संवर्द्धित लता वृक्षों पर चकोरवत विरचण करते हुए समस्त प्राणियों के प्रति मातृवत स्नेहशील हो कर क्या मैं श्रीवृन्दावन में वास कर सकूंगा।। 9 ।।


जय शिव शंकर जय गंगाधर भगवान शिव की स्तुति

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