ब्रह्मा आकाश में ओम रुप में व्याप्त है

ब्रह्मा आकाश में ओम रुप में व्याप्त है

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ब्रह्मा आकाश में ओम रुप में व्याप्त है

– इस जड़ चेतन जगत में जो कुछ भी है, वह ईश्वर की कृपा से है. उस ईश्वर के द्वारा त्यागे गए का भोग कीजिए, बहुत ज्यादा लालच मत करो. यह धनादि किसका है ? (अर्थात ईश्वर के अलावा और किसी का नहीं),

हे ईश्वर ! हम कर कर्म करते हुए 100 वर्ष तक जीने की इच्छा करें, इसके अलावा कल्याण का कोई अन्य मार्ग नहीं है. कर्म मनुष्य को लिप्त नहीं करते। जो गहन अंधकार से गिरे रहते हैं, वह लोग असुर्य कहलाते हैं. जो आत्मा का हनन करने वाले हैं, वे लोग प्रेत रूप में वैसे ही लोकों को प्राप्त होते हैं. अजन्मा ईश्वर एक है. वह मन से भी ज्यादा गतिमान और फुर्तीला है I

देवगण भी इसे प्राप्त नहीं कर पाते हैं. स्थिर रहकर भी दौड़ता हुआ गतिशीलों को पछाड़ देता है. वह जल में रहता है. वायु को धारण करता है l

वह (परम तत्व) गतिशील है और स्थिर भी है. वह दूर भी है और निकट भी है वह जड़ और चेतन दोनों के भीतर भी है और बाहर भी है. जो सभी प्राणियों (जड़ चेतन) में अपने को (आत्म तत्व) को देखता है तथा उसका अनुभव करता है, उसे कभी भी कोई भ्रम नहीं होता।

जिस (स्थिति) में मनुष्य यह जान लेता है की सभी भूतों में एक ही आत्मतत्व है, तब क्या मोह ? क्या शोक ? उसे सर्वत्र एक जैसी स्थिति दिखाई देती है I वह परमपिता सर्वव्यापक, चमकीला, (दीप्तिमान) काया रहित, नाड़ियों से रहित, पवित्र, पाप रहित, विद्वान, मननशील, सर्व व्यापक, व स्वयंभू (स्वंय को उत्पन्न करने वाला) है l

उसने शृष्टि के आरंभ से ही सबके लिए यथा योग्य साधन सुविधाओं की व्यवस्था की है. जो व्यक्ति विनाश की उपासना करते हैं, वे घोर अंधकार में प्रवेश करते हैं I जो संभूति (सृजन) के उपासक हैं, वे भी वैसे ही अंधकार में प्रवेश करते हैं. अन्य देवों ने संभव से असंभव के बारे में विशेष रूप से कहा है l

हम ने उन धीर पुरुषों से जाना है कि संभव से असंभव का प्रभाव उससे अलग है l सृजन और विनाश इन दोनों को साथ-साथ ही समझिए, विनाश से मृत्यु को तैरकर और सृजन से अमृत की प्राप्ति की जाती है l जो अज्ञान की उपासना करते हैं, वे गहरे अंधकार में प्रवेश करते हैं. जो ज्ञान की उपासना करते हैं l

वे भी फिर वैसे ही गहरे अंधकार में प्रवेश करते हैं. हमने धीर पुरुषों से विशेष रूप से जाना है की विद्या का प्रभाव कुछ और होता है अविद्या का प्रभाव कुछ और होता है. विद्या और अविद्या दोनों को साथ-साथ समझिए। अविद्या से मृत्यु को पार किया जाता है. और विद्या से अमृत तत्व को पाया जाता है l

यह शरीर वायु,अमृत आदि से बना हुआ है. शरीर नाशवान है. हे यजमान ! आप ओम तथा अपनी क्षमता और किए गए कर्मों का स्मरण करो. हे अग्नि ! आप हमें श्रेष्ठ मार्ग पर ले जाइए। आप हमें ऐसे ही मार्ग से धन दिलाइए।

हे विश्व ! आप विद्वान हैं. हम बार बार आपको नमन करते हैं. हम बारबार आपसे अनुरोध करते हैं. आप हमें पापों से बचाने की कृपा करें

हिरण्मयेन पात्रेण सतस्यापिहितं मुखम,
योसावादित्ये पुरुष: सोसावहम,
ॐ खं ब्रह्म..

सत्य का मुंह स्वर्णमय पात्र से ढका हुआ है. वह जो आदित्य पुरुष है, वह मैं हूं. आकाश में ओम रुप में ब्रह्मा व्याप्त है.

पूर्णावतार भगवान श्रीकृष्ण

Bhakti Gyaan

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