Garudaji Aur Kaakabhushundi-गरुड़जी और काकभुशुण्डि

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गरुड़जी के प्रश्न और काकभुशुण्डि

के उत्तर

संतों का अभ्युदय सदा ही सुख कर होता है जैसे चंद्रमा और सूर्य का उदय विश्व भर के लिए सुखदायक है वेदों में अहिंसा को परम धर्म माना है। पर और परनिंदा के समान भारी पाप नहीं है।

शंकरजी और गुरु की निंदा करने वाला मनुष्य (अगले जन्म में) मेंढक होता है और वह हजार जन्म तक वही मेंढक का शरीर पाता है। ब्राह्मणों की निंदा करने वाला व्यक्ति बहुत से नरक भोगकर फिर जगत में कौए का शरीर धारण करके जन्म लेता है।

जो अभिमानी जीव देवताओं और वेदों की निंदा करते हैं। वे रौरव नरक में पढ़ते हैं। संतों की निंदा में लगे हुए लोग उल्लू होते हैं, जिन्हें मोह रूपी रात्रि प्रिय होती है और ज्ञानरूपी सूर्य जिनके लिए बीत गया (अस्त हो गया) रहता है।

जो मूर्ख मनुष्य सब की निंदा करते हैं, वे चमगादड़ होकर जन्म लेते हैं। हे तात ! अब मानस रोग सुनिए, जिनसे सब लोग दु:ख पाया करते हैं।

मानस रोग:-


  • जो सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वाद है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है। प्रीति कहीं ये तीनो भाई (वात, पित्त और कफ) प्रीति कर लें (मिल जायें ) दु:खदायक सन्निपात रोग उत्पन्न होता है।
  • कठिनता से प्राप्त (पूर्ण) होने वाले जो विषयों के मनोरथ हैं, वे ही सब शूल (कष्टदायक रोग हैं); उनके नाम कौन जानता है (अर्थात वे अपार हैं) ।
  • ममता दाद, और ईर्ष्या (डाह) खुजली है, हर्ष-विषाद गले की रोगों की अधिकता है ( गलगंड, कण्ठमाला या घेंघा आदि रोग हैं), पराए सुख को देखकर जो जलन होती है, वही क्षयी होती है। दुष्टता और मन की कुटिलता ही कोढ़ है।
  • अहंकार अत्यंत दु:ख देने वाला डमरु (गाँठ का) रोग है। दंभ, कपट मद , और मान नहरूआ (नसों का) रोग है। तृणा बड़ा भारी उदर वृद्धि (जलोदर) रोग है। तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएं प्रबल तिजोरी है। मत्सर और अविवेक दो प्रकार के ज्वर हैं। इस प्रकार अनेकों बुरे रोग हैं।
  • एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत से असाध्य रोग हैं। ये जीव को निरंतर कष्ट देते रहते हैं। ऐसी दशा में वह समाधि (शांति) को कैसे प्राप्त करें।
  • नियम, धर्म, आचार, (उत्तम आचरण) तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों औषधियां हैं। परंतु हे गरूड़ जी ! उनसे ये रोग नहीं जाते हैं। इस प्रकार जगत में समस्त जीव रोगी हैं, जो शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोग के दु:ख से और भी दुखी हो रहे हैं। मैंने यह थोड़े से मानस रोग कहे हैं। ये हैं तो सबको, परंतु इन्हें जान पाये हैं कोई विरले ही।
  • प्राणियों को जलाने वाले यह पापी (रोग) जान लिये जाने से कुछ क्षीण अवश्य हो जाते हैं, परंतु नाश को नहीं प्राप्त होते। विषयरूप कुपथ्य पाकर यह मुनियों के हृदय में भी अंकुरित हो उठते हैं, तब बेचारे साधारण मनुष्य तो क्या चीज हैं।

राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एही भाँति बनै संजोगा।।

सद्गुरु बैद बचन बिश्वासा। संजम यह न विषय कै आसा।।

  • यदि श्रीरामजी की कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाए तो यह सब रोग नष्ट हो जाएं। सद्गुरु रुपी वैद्य के बचन में विश्वास हो। विषयों की आशा ना करें, यही संयम (परहेज) हो।
  • श्रीरघुनाथजी की भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवा के साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जाएं, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते।
  • मन को निरोग हुआ तब जानना चाहिए, जब ह्रदय में वैराग्य का बल बढ़ जाए, उत्तम बुद्धि रूपी भूख नित नई बढ़ती रहे और विषयों की आशारूपी दुर्बलता मिट जाए।
  • इस प्रकार सब रोगों से छूटकर जब मनुष्य निर्मल ज्ञानरूपी जल में स्नान कर लेता है, तब उसके हृदय में राम भक्ति छायी रहती है। शिवजी, ब्रह्माजी, शुकदेवजी सनकादि और नारद आदि ब्रह्म विचार में परम निपुण मुनि हैं।


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