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कार्तिक मास माहात्म्य-प्रथम अध्याय

कार्तिक मास माहात्म्य-प्रथम अध्याय : इस अध्याय के पड़ने मात्र से अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है।

मैं सिमरूँ माता शारदा, बैठे जिह्वा आये।
कार्तिक मास की कथा, लिखे ‘कमल’ हर्षाये।।

नैमिषारण्य तीर्थ में श्रीसूतजी ने अठ्ठासी हजार शौनकादि ऋषियों से कहा –

अब मैं आपको कार्तिक मास की कथा विस्तारपूर्वक सुनाता हूँ। जिसका श्रवण करने से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। और अन्त समय में वैकुण्ठ धाम की प्राप्ति होती है।

सूतजी ने कहा – श्रीकृष्ण जी से अनुमति लेकर देवर्षि नारद के चले जाने के पश्चात सत्यभामा प्रसन्न होकर भगवान कृष्ण से बोली – हे प्रभु ! मैं धन्य हुई, मेरा जन्म सफल हुआ । Please Read Also-आखिर भगवान की माया क्या है?

मुझ जैसी त्रौलोक्य सुन्दरी के जन्मदाता भी धन्य हैं। जो आपकी सोलह हजार स्त्रियों के बीच में आपकी परम प्यारी पत्नी बनी । मैंने आपके साथ नारद जी को वह कल्पवृक्ष आदिपुरुष विधिपूर्वक दान में दिया। परन्तु वही कल्पवृक्ष मेरे घर लहराया करता है ।

यह बात मृत्युलोक में किसी स्त्री को ज्ञात नहीं है। हे त्रिलोकीनाथ ! मैं आपसे कुछ पूछने की इच्छुक हूँ। आप मुझे कृपया कार्तिक माहात्म्य की कथा विस्तार पूर्वक सुनाइये, जिसको सुनकर मेरा हित हो और जिसके करने से कल्पपर्यन्त भी आप मुझसे विमुख न हों।

सूतजी आगे बोले – सत्यभामा के ऎसे वचन सुनकर श्रीकृष्ण ने हँसते हुए सत्यभामा का हाथ पकड़ा और अपने सेवकों को वहीं रूकने के लिए कहकर विलासयुक्त अपनी पत्नी को कल्पवृक्ष के नीचे ले गये फिर हंसकर बोले –

हे प्रिये ! सोलह हजार रानियों में से तुम मुझे प्राणों के समान प्यारी हो तुम्हारे लिए मैंने इन्द्र एवं देवताओं से विरोध किया था। हे कान्ते ! जो बात तुमने मुझसे पूछी है, उसे सुनो।

एक दिन मैंने इच्छापूर्ति के लिए गरुड़ पर सवार होकर इन्द्रलोक जाकर कल्पवृक्ष मांगा। इन्द्र द्वारा मना किये जाने पर इन्द्र एवं गरुड़ में घोर संग्राम हुआ और गौ लोक में भी गरुड़ जी गौओं से युद्ध किया।

गरुड़ की चोंच की चोट से उनके कान एवं पूंछ कटकर गिरने लगे, जिससे तीन वस्तुएँ उत्पन्न हुई। कान से तम्बाकू, पूँछ से गोभी और रक्त से मेहंदी बनी। इन तीनों का प्रयोग करने वाले को मोक्ष नहीं मिलता तब गौओं ने भी क्रोधित होकर गरुड़ पर वार किया जिससे उनके तीन पंख टूटकर गिर गये।

इनके पहले पंख से नीलकण्ठ, दूसरे से मोर और तीसरे से चकवा-चकवी उत्पन्न हुए, हे प्रिये ! इन तीनों का दर्शन करने मात्र से ही शुभ फल प्राप्त हो जाता है। Please Read Alsoश्रीकृष्ण को पतिरूप प्राप्ति के लिए गोपियों द्वारा कात्यायनी पूजन करना

यह सुनकर सत्यभामा ने कहा – हे प्रभो ! कृपया मुझे मेरे पूर्व जन्मों के विषय में बताइए कि मैंने पूर्व जन्म में कौन-कौन से दान, व्रत व जप नहीं किए हैं । मेरा स्वभाव कैसा था, मेरे जन्मदाता कौन थे और मुझे मृत्युलोक में जन्म क्यों लेना पड़ा । मैंने ऎसा कौन सा पुण्य कर्म किया था जिससे मैं आपकी अर्द्धांगिनी हुई।

श्रीकृष्ण ने कहा – हे प्रिये ! अब मै तुम्हारे द्वारा पूर्व जन्म में किये गये पुण्य कर्मों को विस्तारपूर्वक कहता हूँ। उसे सुनो पूर्व समय में सतयुग के अन्त में मायापुरी में अत्रिगोत्र में वेद-वेदान्त का ज्ञाता देवशर्मा नामक एक ब्राह्मण निवास करता था।

वह प्रतिदिन अतिथियों की सेवा, हवन और सूर्य भगवान का पूजन किया करता था। वह सूर्य के समान तेजस्वी था। वृद्धावस्था में उसे गुणवती नामक कन्या की प्राप्ति हुई।

उस पुत्रहीन ब्राह्मण ने अपनी कन्या का विवाह अपने ही चन्द्र नामक शिष्य के साथ कर दिया। वह चन्द्र को अपने पुत्र के समान मानता था और चन्द्र भी उसे अपने पिता की भाँति सम्मान देता था। एक दिन वे दोनों कुश व समिधा लेने के लिए जंगल में गये।

जब वे हिमालय की तलहटी में भ्रमण कर रहे थे तब उन्हें एक राक्षस आता हुआ दिखाई दिया। उस राक्षस को देखकर भय के कारण उनके अंग शिथिल हो गये और वे वहाँ से भागने में भी असमर्थ हो गये तब उस काल के समान राक्षस ने उन दोनों को मार डाला।

चूंकि वे धर्मात्मा थे इसलिए मेरे पार्षद उन्हें मेरे वैकुण्ठ धाम में मेरे पास ले आये। उन दोनों द्वारा आजीवन सूर्य भगवान की पूजा किये जाने के कारण मैं दोनों पर अति प्रसन्न हुआ।

गणेश जी, शिवजी, सूर्य व देवी इन सबकी पूजा करने वाले मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। मैं एक होता हुआ भी काल और कर्मों के भेद से पांच प्रकार का होता हूँ। जैस-एक देवदत्त, पिता, भ्राता, आदि नामों से पुकारा जाता है। जब वे दोनों विमान पर आरुढ़ होकर सूर्य के समान तेजस्वी, रूपवान, चन्दन की माला धारण किये हुए मेरे भवन में आये, तो वे दिव्य भोगों को भोगने लगे।

श्री कृष्णाष्टकम एवं कृपा कटाक्ष स्तोत्र

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