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कैकेयी निंदा की पात्र है या वंदना की आइये जानें

कैकेयी निंदा की पात्र है या वंदना की आइये जानें :- अयोध्या के राजा दशरथ की प्रिय रानी कैकेयी के द्वारा दो वरदान मांगना उसका अपना कोई चिंतन नही था।

लेकिन दासी मंथरा ने जब इन दो वरदानों के साथ भरत की भावी सुरक्षा का सवाल भिन्न-भिन्न य़ुक्तियों के माध्यम से समझाया तो अपने हित अनहित का विचार किए बिना एक मां के हृदय ने कुटिल मंथरा की सलाह के अनुसार वे दो वरदान महाराजा दशरथ से मांग ही लिए , जो अंततः रामायण की कथा के आधार बने।

लेकिन इस सुरक्षा के चिंतन के कारण कैकेयी को अपने जीवन मे जो लांछना और अवमानना मिली, उसके चलते उनका प्रारब्ध ही अभिशप्त हो गया। रामायण के नारी पात्र कैकेयी का स्मरण आम आदमी घृणा और तिरस्कार के साथ करता है। इसलिए आज कोई भी अपनी पुत्री का नाम कैकेयी नहीं रखता और न ही रामायण के पारायण के दौरान कैकेयी के चरित्र पर किसी का ध्यान जाता है।

लेकिन मैथिलीशरण गुप्त ने अपने रचित काव्य साकेत में कैकेयी के लांछन को दूर करने का प्रयास किया है। श्री राम से इतना अधिक स्नेह करने वाली कैकेयी इतनी अधिक कठोर हो गई कि उन्हें वनवास दे डाला।

पुत्र प्रेम के स्वार्थवश ऐसे दो वरदान माँग बैठी, कि उसके जीवन को ही कलंकित कर दिया। क्या संसार कैकेयी के उसी रूप से परिचित रहेगा ? क्या वे तथ्य सामने नहीं आने चाहिए जिनके कारण कैकेयी को कलंकित हो पड़ा।

कैकेयी निंदा की पात्र है या वंदना की अथवा तो कैकेयी रघुवंश का हित चाहती थी या अनहित। एक संत का कहना है कि कैकेयी वंदनीय और सिर्फ वंदनीय ही है।

संत ने कहा कि श्रवण कुमार के पिता रत्नऋषि नंदीग्राम के राजा अश्वपति के राज पुरोहित थे और कैकेयी राजा अश्वपति की बेटी थी। रत्नऋषि ने कैकेयी को सभी शास्त्र वेद पुराण की शिक्षा दी।

एक दिन बातों ही बातों में अयोध्या नरेश महाराजा दशरथ की चर्चा चल पड़ी।रत्नऋषि ने कैकेयी को बतलाया कि दशरथ की कोई संतान राज गद्दी पर नहीं बैठ पायेगी और साथ ही ज्योतिष गणना के आधार पर यह भी बतलाया कि दशरथ की मृत्यु के पश्चात यदि चौदह वर्ष के दौरान कोई संतान गद्दी पर बैठ भी गया तो रघुवंश का नाश हो जाएगा।

यह बात कैकेयी ने पूरी तरह हृदयगमं कर लिया और विवाह के बाद भी कैकेयी के ह्रदय में यह बात पूरी तरह समायी हुई थी। अब दशरथ के साथ कैकेयी के विवाह के प्रसंग पर आते हैं। जब अवध नरेश ने कैकेयी के सौन्दर्य और अलौकिक ज्ञान और गुणवत्ता की चर्चा सुनी तो राजा दशरथ ने कैकेयी के पिता अश्वपति के पास कैकेयी से विवाह करने की इच्छा व्यक्त करते हुए प्रस्ताव भेज दिया।

अश्वपति ने प्रस्ताव तो स्वीकार कर लिया लेकिन शर्त के साथ। कैकेयी के पिता अश्वपति ने शर्त यह रखी कि महाराज ! आप यह वचन दें ! कि मेरी कन्या से जो पुत्र होगा उसी को राज्य मिलेगा। लेकिन सूर्य वंश की परम्परा यह थी कि जेष्ठ पुत्र ही को राजा बनाया जाएगा।

लेकिन उस समय राजा दशरथ की मानसिक स्थिति ऐसी थी जिसको धर्म धुरंधर महाराजा दशरथ के लिए प्रयुक्त करना उचित नहीं लगता। और महाराजा दशरथ ने शर्त स्वीकार कर कैकेयी के साथ विवाह कर लिया।

जब राम के राज तिलक करने का अवसर आया तो बुद्धिमती कैकेयी को राज पुरोहित के कथन का स्मरण हो आया और उसने यह निश्चय कर लिया कि वह अपने प्रिय पुत्र राम को रघुवंश के विनाश का कारण नहीं बनने देगी और वही हुआ।

राम के वन गमन के पश्चात् भी कैकेयी भरत के लिए भी यही चाहती थी कि वह राजसिंहासन पर बैठ कर राज्य का संचालन न करे और यही हुआ। भरत ने राज कार्य तो संभाला लेकिन राज सिंहासन धारण न कर, सिंहासन पर राम की चरण पादुका स्थापित कर राज्य का शासन कुशासन पर बैठ कर संचालित किया।

भरत ने कुशासन पर बैठ कर अयोध्या को सुशासन दिया। संत का मानना है कि राम की चौदह साल की वनवास की अवधि में एक भी मौत नहीं हुई।

इतनी ज्ञानवान और गुणवान और राम को भरत से भी अधिक प्रेम करने वाली कैकेयी ने कुटिल मंथरा के बहकावे में कैसे आ गई। मंथरा की कुटिल बातें सुन कर कैकेयी ने क्या कुछ नहीं कहा :

‘पुनि अस कबहुँ कहसी घरफोरि, तब धरि जीभ कढ़ावहु तोरि’

और फिर तुलसी ने एक दोहे कैकेयी के मुख से यह कहलवाया :

“काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि, तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि।

इसके अलावा कैकेयी के चरित्र के संदर्भ कोई राय बनाने के पूर्व देवताओं और सरस्वती की भूमिका पर भी तो विचार किया जाना चाहिए। ऐसी परिस्थिति से घिर कर ही तो कैकेयी को ऐसे दो वरदान मांगने पड़े जिनके चलते वह हर काल और युग में एक कलंकिनी के रुप मे ही परिभाषित होती रही। अपने जिस पुत्र भरत के लिए राज्य मांगा उसी पुत्र से कैकेयी को कितनी लांछना भोगनी पड़ी यथा :

जौं पै कुरुचि रही अति तोहि, जनमत काहे न मारे मोहि।
पेड़ काटि तें पालिउँ सींचा, मीन जिअन निति बारि उलीचा ।।

भरत ने अपनी माता के प्रति जैसे कुवचन कहे :

सुनि सुठि सहमेऊ राजकुमारु, पाकें छत जनु लाग अँगारू ।।
धीरज धरि भरि लेहीं उसासा, पापिनि सबहिं भांति कुल नासा ।।

उनको भी कैकेयी रघुवंश की सुरक्षा के लिए सहन कर गई। भरत ने इस चौपाई में तो एक मां के प्रति वांछित किसी मर्यादा का ख्याल नहीं रखा :

जब तैं कुमति कुमत जियँ ठयऊ, खंड खंड होई हृदउ न गयऊ ।
बर मागत मन भइ नहिं पीरा, गरि न जीह मुहँ परेउ न कीरा ।।

इन शब्दों में भरतजी ने मां कैकेयी की घोरतम निंदा करते हैं। भगवान राम ने भरतजी को चित्रकूट में कैकेयी की इस तरह कठोरतम निंदा करने रोका तो भरतजी ने कहा कि मैं अकेला कैकेयी की निंदा नहीं कर रहा हूं।

भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी
देखि न जाहिं बिकल महतारी। जरहिं दुसह जर पुर न नारी॥

यहां तक कि निषादराज की दृष्टि में भी कैकेयी का चरित्र भी ऐसा ही है। “कैकेयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपनुकीन्ह” लेकिन राम इस तरह के किसी मत से सहमत नहीं जान पड़ते।

श्री राम कहते हैं:

दोसु देहिं जननिहि जड़ तेई , जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई।

मानस का गहन अध्ययन करने पर यही कहना पड़ता है कि कैकेयी निंदनीय है या वंदनीय इस पर मंतव्य देना कोई आसान नहीं है। क्योंकि कैकेयी की प्रसंशा करने वाला तुलसी का पात्र इतना महान है कि अनुचित नहीं माना जा सकता और वह पात्र है मानस का महानायक श्री राम। 

दूसरी ओर कैकेयी की निंदा करने वाले हैं भरत और उनका चरित्र भी इस तरह चित्रित किया गया है कि हम यह नहीं कह सकते कि वे गलत हैं। कुल मिला कर रामायण में परिस्थितियां इस तरह रची गई है कि तुलसी ने मूर्त रुप से भले ही निंदनीय के रुप में प्रस्तुत किया है लेकिन कैकेयी के दो वरदान के परिणामों पर जाए तो वे वंदनीय ही हैं। 

मैथिलीशरण गुप्त के काव्य साकेत के शब्दों मे स्वयं कैकेयी स्वीकार करती है:

क्या कर सकती थी मरी मंथरा दासी, मेरा मन ही रह सका ना निज विश्वासी।

विश्व के सभी स्थानों में श्री धाम वृन्दावन सर्वोच्च क्यों है

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