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देवर्षि नारद द्वारा श्रीकृष्ण के गृहस्थ जीवन का दर्शन !

देवर्षि नारद द्वारा श्रीकृष्ण के गृहस्थ जीवन का दर्शन !

भगवान की लीलाओं को पढ़ने एवम सुनने का अभिप्राय यह है कि उनकी भक्ति हमारे हृदय में आये। जैसे सुगंधित चीज को नाक से सूंघने पर, स्वादिष्ट चीज को जीभ से चखने पर और सुंदर चीज को आंखों से देखने पर अपने-आप ही प्रेम हो जाता है।

वैसे ही भगवान की लीलाओं को पढ़ने-सुनने से भगवान से अपने-आप प्रेम हो जाता है। भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं के पीछे मानव के कल्याण की ही भावना निहित थी। यह भी पढ़ें – आखिर इस संसार में सुख किसे है

श्रीमद्भागवतम् (Srimad Bhagavatam) के दशम स्कन्ध के उनहत्तरवें (69वें) अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण के गृहस्थ जीवन का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया गया है।

श्रीकृष्ण के विवाह तो लोक में प्रसिद्ध हैं। रुक्मिणी जी का उन्होंने हरण किया था। स्यमन्तकमणि की खोज में जाम्बवन्त से युद्ध करके उपहार स्वरूप वे जाम्बवती जी को ले आए। मणि के कारण कलंक लगने के दोष से लज्जित सत्राजित ने अपनी पुत्री सत्यभामा को स्वयं श्रीकृष्ण को प्रदान कर दिया। यह भी पढ़ें – भागवत में राधाजी का जिक्र क्यों नहीं आया?

कालिन्दी जी ने उनको तप करके पाया। लक्ष्मणा जी के स्वयंवर का मत्स्यभेद करने में दूसरा और कोई समर्थ ही न हो सका नग्नजित् राजा के सातों साँड़ एक साथ नाथ कर उनकी पुत्री सत्या से श्रीकृष्ण ने विवाह किया। मित्रविन्दा जी को उन्होंने स्वयं हरण किया। भद्रा जी को स्वयं उनके पिता ने श्रीकृष्ण को प्रदान किया। यह तो श्रीकृष्ण की आठ पटरानियां हैं।

इनके अलावा पृथ्वीदेवी के पुत्र नरकासुर ने सोलह हजार राज-कन्याओं को बंदी बना रखा था, उनका भी उद्धार आवश्यक था। श्रीकृष्ण ने भौमासुर को मार कर उन राज-कन्याओं को अपना कर उनका उद्धार किया। गीता में कर्मयोग का उपदेश देने वाले श्रीकृष्ण स्वयं सबसे बड़े कर्मयोगी है।

कर्मयोगी कर्म और कर्मफल के साथ सम्बन्ध न रख कर केवल दूसरों के हित के लिए कर्म करता है। गीता के अनुसार जो कर्म सब लोगों के उद्धार के लिए, आसक्ति, स्वार्थ और कामना को त्याग कर किया जाता है, वह बांधता नहीं और यह यज्ञ है। यही कर्म संन्यास है। यह भी पढ़ें – जब भगवान रात में भक्तों के लिए राशन खरीदने आए

जैसे सरोवर में कमलपत्र जलराशि से सदैव ऊपर उठे हुए उससे निर्लिप्त व अछूते रहते हैं वैसे ही श्रीकृष्ण सोलह हजार से अधिक स्त्रियों के स्वामी होकर भी भोगी नहीं वरन त्यागी हैं, कर्म-संन्यासी हैं।

भगवान श्रीकृष्ण एक रूप अनेक :-

देवर्षि नारद ने जब सुना कि भगवान श्रीकृष्ण ने भौमासुर को मार कर एक ही शरीर से एक ही समय में सोलह हजार राजकुमारियों के साथ विवाह कर लिया है, तो वे अत्यंत उत्सुक होकर भगवान की गृहस्थ लीला देखने के लिए द्वारका आये। द्वारका में श्रीकृष्ण के अंत:पुर में सोलह हजार से भी अधिक बड़े सुंदर कलापूर्ण सुसज्जित महल थे।

नारद जी एक महल में गए। वहां रुक्मिणी जी श्रीकृष्ण की चंवर से हवा कर रही थीं। नारद जी को देखते ही भगवान ने उठ कर उनके चरण पखारे, चरणामृत सिर पर चढ़ाया और उनकी ‘क्या सेवा की जाए पूछा। नारद जी ने कहा-भगवन् ! ऐसी कृपा कीजिए कि आपके चरण कमलों की स्मृति सदा बनी रहे। यह भी पढ़ें – हमारे शब्द, कार्य, भावनायें, गतिविधियाँ ही कर्म है।

इसके बाद नारद जी एक-एक करके सभी रानियों के महल में गए। सभी जगह भगवान श्रीकृष्ण ने उनका स्वागत-सत्कार किया। नारद जी ने देखा कहीं श्रीकृष्ण गृहस्थी के कार्य कर रहे हैं, कहीं वे अपने नन्हें-नन्हें बच्चों को दुलार रहे हैं, कहीं स्नान करने की तैयारी कर रहे हैं, कहीं हवन कर रहे हैं, कहीं पंच-महायज्ञों से देवताओं का आराधन कर रहे हैं,

कहीं ब्राह्मण-भोजन करा रहे हैं, कहीं यज्ञ के बाद अवशेष भोजन कर रहे हैं, कहीं संध्या तो कहीं मौन होकर गायत्री का जप कर रहे हैं, कहीं ब्राह्मणों को वस्त्र-आभूषण व गौएं दान कर रहे हैं, कहीं एकांत में बैठ कर प्रकृति से अतीत पुराण-पुरुष का ध्यान कर रहे हैं, कहीं शयन कर रहे हैं तो कहीं ढाल-तलवार लेकर उनको चलाने के पैंतरे बदल रहे हैं,

कहीं उद्धव आदि के साथ गंभीर विचार-विमर्श कर रहे हैं, तो कहीं धन-संग्रह और धन-वृद्धि के कार्य में लगे हैं। कहीं गुरुजनों की सेवा कर रहे हैं, तो कहीं देवताओं का पूजन, तो कहीं धर्म का संपादन कर रहे हैं। यह भी पढ़ें – मनुष्य को नरक प्रदान करने वाले पाप कर्म कौन से हैं

नारद जी ने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण किसी के साथ युद्ध की बातें कर रहें तो किसी के साथ संधि की। कहीं पुत्रों और कन्याओं का विवाह कर रहे हैं तो कहीं घर से कन्याओं को विदा कर रहे हैं, तो कहीं उन्हें बुलाने की तैयारी में लगे हैं। इस प्रकार श्रीकृष्ण सब जगह वर्णाश्रम-धर्म के अनुकूल कार्य करने व धर्म-साधन करने में लगे हैं।

मनुष्य की-सी लीला करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण की योगमाया का वैभव देख कर नारद जी ने मुसकराते हुए कहा- योगेश्वर ! यद्यपि आपकी योगमाया ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े मायावियों के लिए भी अगम्य है तथापि आपके चरणों की सेवा करने के कारण यह हमारे सामने प्रकट हो गई है। यह भी पढ़ें – ऋषियों द्वारा विश्व का सबसे बड़ा समय गणना तन्त्र

भगवान ने कहा- नारद ! मैं ही धर्म का उपदेशक, पालन करने वाला और उसका अनुष्ठान करने वाला हूँ। मेरे आचरण से लोगों को शिक्षा मिलेगी ! इसलिए मैं स्वयं धर्म का आचरण करता हूँ। तुम मेरी माया से मोहित न होना।

प्रभु श्रीकृष्ण की गृहस्थ लीला से शिक्षा :-

संसार में कुल ८४ लाख योनियां हैं और उन सब में श्रीकृष्ण की चेतना व्याप्त है। श्रीकृष्ण हर शरीर में घटित होने वाली हर बात को जानते हैं। श्रीकृष्ण ने नारद जी को यह दिखा दिया कि इतना बड़ा परिवार होने पर भी वे सबको प्रसन्न रखते हैं। वे इस बात का ध्यान रखते हैं कि घर के लोग दु:खी न हों और सब आनंद में रहें।

इस लीला में श्रीकृष्ण ने गृहस्थ धर्म समझाया है। वे सभी रानियों से बाह्य रूप से समान प्रेम प्रकट करते हैं किंतु अंदर से उनमें वैराग्य है। वे किसी भी रानी में आसक्त नहीं है। मनुष्य को भी घर के सभी लोगों को समान रूप से बाह्य प्रेम करना चाहिए किंतु अंदर से प्रेम भगवान से ही होना चाहिए।

भगवान श्रीकृष्ण ने इस लीला के द्वारा यही शिक्षा दी है कि पति-पत्नी शुद्ध भाव से प्रेम करें किन्तु शरीर में आसक्त न हों आत्मदृष्टि से प्रेम करें न कि देह दृष्टि से। गृहस्थ आश्रम भक्ति में बाधक नहीं है बल्कि संसार-सागर से तारने वाला है। भगवान श्रीकृष्ण ने जो लीलाएं की हैं उन्हें दूसरा कोई नहीं कर सकता है।

श्रीकृष्ण ने धर्म की स्थापना के लिए दिव्य शरीर धारण किया और उसके अनुरूप अनेकों अद्भुत चरित्रों का अभिनय किया। उनका एक-एक कर्म स्मरण करने वालों के कर्म-बंधनों को काट डालने वाला है। जिनको भगवान श्रीकृष्ण के चरण कमलों की सेवा का अधिकार चाहिए उन्हें उनकी लीलाओं को अवश्य पढ़ना या सुनना चाहिए।

Categories: Puran

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