सब ऐश्वर्य छिपाइ पाइँ परि दीन भयौ अभिमानी।
प्रगट कियौ माधुर्य मधुररस रसिक नरेस निसानी ।।
नेति नेति निगमामग गावत पावत नहीं बुधि बानी ।
भगवत रसिक रसिक सखियन सँग, अंखियाँ निरखि सिरानी।।
{श्री भगवत रसिक, श्री भगवत रसिक की वाणी}..
भावार्थ : श्री भगवत रसिक देव जी कहते हैं जो हरि अन्यत्र षड ऎश्वर्य के अभिमानी है । वे यहाँ अपना सारा बड्डपन छिपाकर श्री किशोरीजी के चरण कमलो में पड़े रहकर अत्यंत दीन बने रहते है ।
इन्होने मधुर रस का जो माधुर्य प्रकट किया है । उसकी एकमात्र ध्वजा रसिक नरेश स्वामी श्रीहरिदास जी महाराज हैं । यह रस बड़ा दुर्गम है । इसका गान वेद नेति नेति पूर्वक करते है । बुद्धि इसे पा नहीं सकती और वाणी इसका वर्णन नहीं कर सकती ।
भगवत रसिक जी कहते है कि रसिक सखियाँ संगति के प्रभाव से हमारी आँखे सदा ही इस माधुरी का अवलोकन करती हुई शीतल होती रहती है ।
तेरो मुख नीको कि मेरो मुख प्यारी।
दर्पण हाथ लिये नंदनंदन सांची कहो वृषभानदुलारी।।
प्रात समय गिरिधर राधा दोऊ मुख देखत दर्पण में।
जोरि कपोल कहत आपुस में तुम नीके किंधो हम नीकी
करत विचार सोचि अपुने मन में।।
जहाँ एक ओर श्रीस्वामिनी और श्रीस्वामिनीवल्लभ ऐसी कौतुकपूर्ण रसमय आनंदकेलि कर रहे हैं । वहीं उन्हीं के हृद्गत गूढ़ पुंभाव और स्त्रीभाव के संष्लिष्ट स्वरूप श्रीवल्लभ जो लीला कर रहे हैं । उसके भी दर्शन कीर्तन में इस प्रकार होते हैं :
करि सिंगार गिरिधरनलाल को जब कर वेणु गहाई।
लै दर्पण सन्मुख ठाडे व्है निरखि निरखि मुसिकाई।।
महानुभाव श्रीगोपालदासजी श्रीवल्लभाख्यान में इस रहस्य को कितनी सरलता एवं सहजता से समझाते हैं :
” रूप बेऊ एक ते भिन्न थई विस्तरे।”
इस रहस्य को हृदयारूढ़ करके इन स्वरूपों की भिन्न-भिन्न रसात्मक लीलाओं का रसास्वाद करने की योग्यता हमें प्राप्त हो यही विनती श्री स्वामिनी के श्री चरणों में है ।
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तेरी माया का ना पाया कोई पार की लीला तेरी तू ही जाने
आपका कर्तव्य ही धर्म है, प्रेम ही ईश्वर है, सेवा ही पूजा है, और सत्य ही भक्ति है। : ब्रज महाराज दिलीप तिवारी जी