क्या स्त्री किसी को गुरु बना सकती है? :
क्या स्त्री किसी को गुरु बना सकती है?
गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः|
पतिरेवगुरु: स्त्रीणां सर्वस्याभ्यागतो गुरुः||
अग्नि द्विजातियों का गुरु है। ब्राह्मण चारों वर्णों का गुरु है। एकमात्र पति ही स्त्री का गुरु है, एवम अतिथि सबका गुरु है।
–ब्रह्म पुराण । 80। 47।
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वैवाहिको विधि: स्त्रीणां संस्कारो वैदिक: स्मृत:|
पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोऽग्निपरिक्रिया ||
स्त्रियों के लिए वैवाहिक विधि का पालन ही वैदिक संस्कार ( यज्ञोपवीत ) पति की सेवा ही गरुकुल वास तथा गृह कार्य ही अग्निहोत्र कहा गया है।
-मनु स्मृति । 2 । 67 ।
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श्री रामचरितमानस में माँ सती अनसूया ने माता सीता को जो पतिव्रता धर्म का उपदेश दिया है, उसमें उन्होंने जो माता सीता से कहा है:
सोरठा –
सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ|
जसु गावत श्रुति चारि अजहुँ तुलसिका हरिहि प्रिय||
स्त्री जन्म से ही अपवित्र है, किन्तु पति की सेवा करके वह अनायास ही शुभ गति प्राप्त कर लेती है। (अपने पतिव्रता धर्म के कारण ही) आज भी तुलसी भगवान श्रीहरि को प्रिय है और चारों वेद उनका यश गाते हैं।
-रामचरितमानस । 3 । 4 ।
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स्त्री को अपने पति के अतिरिक्त और किसी से संबंध नहीं जोड़ना चाहिए। अत: स्त्रियों से अनुरोध है कि वे किसी भी साधु, तथाकथित गुरु के फेरे में ना पड़े क्योंकि आजकल वैसे भी बहुत ठगी, दम्भ, पाखण्ड हो रहा है।
हम तो यहाँ तक कहेंगे कि साधु को भी चाहिए कि किसी स्त्री को अपनी चेली ना बनायें, क्योंकि दीक्षा देते समय गुरु को शिष्य का स्पर्श करना पड़ता है।
जबकि सन्यासी के लिए शास्त्रों में स्त्री के स्पर्श का कड़ा निषेध किया गया है। श्रीमद्भागवत पुराण में लिखा है कि हाड़ मासमय स्त्री का तो कहना ही क्या, लकड़ी की बनी हुई स्त्री का भी स्पर्श ना करें।
पदापि युवतीं भिक्षुर्न स्पृशेद् दारवीमपि||
-श्रीमद्भागवत । 11 । 8 । 13 ।
शास्त्र मेँ यहाँ तक कहा गया है –
मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत्।
बलवानिन्दियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति॥
-मनुस्मृति । 2 । 215 ।
मनुष्य को चाहिये कि अपनी माता, बहन अथवा पुत्री के साथ कभी एकांत में न रहें, इन्द्रियाँ बड़ी प्रबल होती हैँ, वे विद्वान मनुष्य को भी अपनी ओर आकृष्ट कर लेती हैं।
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सङ्गं न कुर्यात्प्रमदासु जातुः योगस्य पारं परमारुरुक्षुः।
मत्सेवया प्रतिलब्धात्मलाभो वदन्ति या निरयद्वारमस्य॥
-श्रीमद्भागवत । 3 । 31 । 39 ।
जो पुरुष योग के परम पद पर आरुढ़ होना चाहता हो अथवा जिसे मेरी सेवा के प्रभाव से आत्मा-अनात्मा का विवेक हो गया हो, वह स्त्रियों का संग कभी न करे, क्योंकि उन्हें ऐसे पुरुष के लिए नरक का खुला द्वार बताया गया है।
विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशनास्
तेऽपि स्त्रीमुखपड़्कजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहं गताः।
शाल्यन्नं सघृतं पयोदधियुतं भुञ्जन्ति ये मानवास्
तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद्विन्ध्यस्तरेत्सागरे॥
– भर्तृहरिशतक।
जो वायु-भक्षण करके, जल पीकर एवम सूखे पत्ते खाकर रहते थे, वे विश्वामित्र, पराशर आदि भी स्त्रियों के सुंदर मुख को देखकर मोह को प्राप्त हो गये, फिर जो लोग शाली धान्य (सांठी चावल) को घी, दूध तथा दही के साथ खाते हैं, वे यदि अपनी इन्द्रियका निग्रह कर सकें तो मानो विन्ध्याचल पर्वत समुद्रपर तैरने लगा।