भगवद भजन कितने प्रकार का होता है।

भगवद भजन कितने प्रकार का होता है।

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भगवद भजन कितने प्रकार का होता है।

भजन दो प्रकार का होता है :

1. भक्तकर्तुक भगवद्-भजन।
2. भगवत्कर्तृक भक्त-भजन।

भजनीय के यथायोग्य ही भजन भी होता है। निर्गुण, निराकार, परात्पर, परब्रह्म, परमेश्वर, सगुण, निराकार परब्रह्म परमेश्वर तथा सगुण साकार सच्चिदानन्दघन भगवान के भजन की शैली भी भिन्न-भिन्न है। यदा-कदा भगवान ही भक्त को भजने लगते हैं। यह भी पढें :

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‘देवो यथादिपुरुषो भजते मुमुक्षून्।’ (श्रीमद्भागवत महापुराण) अर्थात् आदिपुरुष भगवान् नारायण मुमुक्षुओं को भजते हैं।

भक्त के इष्ट को पूर्ण करना ही भगवत्-कृत भक्त-भजन है। ‘भज’ धातु का अर्थ है सेवन। सामान्यतः यही कहा जाता है कि औषध का सेवन करो। औषध का ग्रहण ही औषध का सेवन करना है।

इसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र द्वारा नित्य निकुंजेश्वरी, रासेश्वरी, राधारानी तथा अनन्त सौन्दर्य माधुर्य-परिपूर्ण श्री व्रजसीमन्तिनी गोपांगनाओं का आत्मीयत्वेन स्वीकार किया जाना ही भगवत्-कर्तृक भक्त-भजन है। भोक्ता द्वारा स्वीकृत होकर भी भोग्य सार्थक होता है। भोक्ता द्वारा अपरिगृहीत भोग्य निरर्थक है। यह भी पढें : गोवेर्धन पर्वत की पारिक्रमा क्यों करते है?

श्रुति वचन है : ‘अहमन्नं, अहमन्नं, अहमन्नं, अहमन्नादः’ अर्थात् मैं ही अन्न हूँ, मैं ही अन्न हूँ, मैं ही अन्न हूँ, मैं ही अन्नाद हूँ। ‘अन्न’ अर्थात् भोग्य। तात्पर्य है कि जीव ही भगवद्-भोग्य है अतएव भोक्ता का भगवान द्वारा स्वीकृत हो जाना ही जीव का परमपुरुषार्थ है। यही शेषावतार का रहस्य है।

शेष भगवान् कहीं भगवान् की शय्या हैं तो अन्यत्र कहीं सिंहासन ही बन जाते हैं। कभी अपनी फणाओं को भगवान् का छत्र बना देते हैं तो कभी स्वयं ही धनुष-बाण हाथ में लिये सजग प्रहरी बन जाते हैं। तात्पर्य यह कि अपने आपको सर्वतोभावेन भगवद-शेष, भगवद-भोग्य बना लिया। यह भी पढें : कौन है जो इस सृष्टि को चला रहा है ?

अपने परम प्रेमास्पद सर्वशेषी प्रभु को आनन्द पहुंचाने के हेतु जीव अपने-आपको सर्वथा उनका शेष, भोग्य बना लें, अपने सुख की कल्पना भी न करें, यही तत्सुख-सुखित्वभाव है। आदरातिशयात, औत्सुक्यातिशयात आदर एवं औत्सुक्य की अतिशयता में जीव अपने परम-प्रेमास्पद प्रभु का सर्वतोभावेन भोग्य बन जाने की ही बारम्बार कामना करने लगता है। यह भी पढें : ब्रज के सुप्रसिद्ध वन कौन कौन से हैं।

अद्वैतमतानुसार ‘अहमन्नं’ का अन्य अर्थ भी है जो प्रसंग से भिन्न है, अतः उसका वर्णन अवांछित है। ‘अहमन्नं अहमन्नं अहमन्नं अहमन्नावः’ का तात्पर्य यह भी है कि भगवान ही हमारे अन्नादः भी हों, भगवान ही हमारे भोग्य हों। भगवान् के मंगलमय मुखचन्द्र का दर्शन पाकर उनके पदारविन्द की नखमणि चन्द्रिका, दामिनी द्युति विनिन्दक पीतांबर, दिव्य-भूषण वसनादि को निहारकर सुखी हो जायँ, उनके अनन्त सौन्दर्य-माधुर्य-सौगन्ध्य-सौरस्यसुधा-जलनिधि का रसास्वादन कर आनन्दित हो जायँ, यही ‘अन्नादः’ का तात्पर्य है। यह भी पढें : वृंदावन बांके बिहारी जी प्रकट कैसे हुए।

सांसारिक जन-क्षुद्र लौकिक षट्रसों के आस्वादन में ही सुखी-दुःखी होते रहते हैं परन्तु भक्त एवं ज्ञानी सदा, सर्वदा, सर्वत्र ही अद्वितीय ब्रह्मानन्द-रस का आस्वादन करता रहता है।

‘रसो वै सः रसं ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति।’ ( तैत्तिरीयोपनिषद् ),

भक्त ही सकल-सच्छास्त्र-वेद्य, उपनिषदों के महातात्पर्य, परात्पर, परब्रह्म, रस-स्वरूप, महदानन्द महत रस के संभोक्ता हैं।तात्पर्य कि भक्त एवं उसके परम-प्रेमास्पद भगवान् में परस्पर अन्योन्य भोक्ता एवं भोग्य का संबंध है, अतएव जीव अपने अन्नत्व एवं अन्नादत्व दोनों की ही भावना करता है।


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