श्री हरि ने हयग्रीव अवतार क्यों लिया था।
उसने सभी भोगों का त्याग कर दिया था। उसकी कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती ने उसे तामसी शक्ति के रूप में दर्शन दिया। भगवती महा-माया ने उससे कहा, महाभाग ! तुम्हारी तपस्या सफल हुई। मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो भी इच्छा हो मैं उसे पूर्ण करने के लिए तैयार हूँ। वत्स ! वर मांगो। यह भी पढ़ें : तुम दिखते नहीं हो फिर भी हरि एहसास तुम्हारा होता है
भगवती की प्रेम और दया की वाणी को सुनकर हयग्रीव की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। उसके नेत्र आनंद के अश्रुओं से भर गए। उसने भगवती की स्तुति करते हुए कहा- हे कल्याणमयी देवि ! आपको नमस्कार है। आप महा-माया हैं। सृष्टि, स्थिति और संहार करना आपका स्वाभाविक गुण है। आपकी कृपा से कुछ भी असंभव नहीं है।
आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे अमर होने का वरदान देने की कृपा करें। देवी ने कहा – दैत्यराज ! इस संसार में जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु निश्चित है। प्रकृति के इस विधि-विधान से कोई नहीं बच सकता। किसी का सदा के लिए अमर होना असंभव है। अमर देवताओं को भी पुण्य समाप्त होने पर मृत्यु लोक में जाना पड़ता है। अत: तुम अमरत्व के अतिरिक्त कोई और वर मांगो। यह भी पढ़ें : मेरा जी करता है श्याम के भजनों में खो जाऊं लिरिक्स
दैत्यराज हयग्रीव बोला – अच्छा तो हयग्रीव के हाथों ही मेरी मृत्यु हो। दूसरे मुझे न मार सकें। मेरे मन की यही अभिलाषा है। आप उसे पूर्ण करने की कृपा करें। ऐसा ही होगा। यह कह कर भगवती अंतर्ध्यान हो गईं। दैत्यराज हयग्रीव असीम आनंद का अनुभव करते हुए अपने घर चला गया। वह देवी के वर के प्रभाव से अजेय हो गया। यह भी पढ़ें : भागवत में राधाजी का जिक्र क्यों नहीं आया?
त्रिलोकी में कोई भी ऐसा नहीं था, जो उस दुष्ट दैत्य को मार सके। उसने ब्रह्मा जी से वेद छीन लिये। और देवताओं तथा ऋषि-मुनियों को सताने लगा। यज्ञादि कर्म बंद हो गए और सृष्टि की व्यवस्था बिगडऩे लगी। ब्रह्मादि सभी देवता भगवान विष्णु के पास गए, किन्तु वे योगनिद्रा में निमग्र थे। उनके धनुष की डोरी चढ़ी हुई थी। यह भी पढ़ें : कर्मों का फल तो सभी को भोगना ही पड़ता हैं।
ब्रह्मा जी ने उनको जगाने के लिए वम्री नामक एक कीड़ा उत्पन्न किया। ब्रह्मा जी की प्रेरणा से उसने धनुष की प्रत्यंचा काट दी। उस समय बड़ा भयंकर टंकार हुआ और भगवान श्री विष्णु का मस्तक कटकर अदृश्य हो गया। सिर रहित भगवान श्री विष्णु के धड़ को देखकर देवताओं के दुख की सीमा न रही।
सभी लोगों ने इस विचित्र घटना को देखकर भगवती की स्तुति की। भगवती प्रकट हुई। उन्होंने कहा – देवताओ चिंता मत करो। मेरी कृपा से तुम्हारा मंगल ही होगा। ब्रह्मा जी एक घोड़े का मस्तक काटकर भगवान के धड़ से जोड़ दें। इससे भगवान का हयग्रीवावतार होगा। वे उसी रूप में दुष्ट हयग्रीव दैत्य का वध करेंगे। ऐसा कह कर भगवती देवी अंतर्ध्यान हो गईं। यह भी पढ़ें : मानव अपने सपन संजोए विधिना अपनी चाल चले
भगवती के कथन के अनुसार उसी क्षण ब्रह्मा जी ने एक घोड़े का मस्तक उतारकर भगवान के धड़ से जोड़ दिया। भगवती के कृपा से उसी क्षण भगवान विष्णु का हयग्रीवावतार हो गया। फिर भगवान विष्णु का हयग्रीव दैत्य राज से भयानक युद्ध हुआ।
अंत में भगवान के हाथों हयग्रीव की मृत्यु हुई। हयग्रीव को मारकर भगवान ने वेदों को ब्रह्मा जी को पुन: समर्पित कर दिया और देवताओं तथा मुनियों के संकट का निवारण किया।
हयग्रीव स्तोत्र :
श्रीमान् वेङ्कटनाथार्यः कवितार्किककेसरी। वेदान्ताचार्यवर्यो मे सन्निधत्तां सदा हृदि।
ज्ञानानन्द मयं देवं निर्मलस्फटिकाकृतिम्। आधारं सर्व विद्यानां हयग्रीवम् उपास्महे॥
स्वतस्सिद्धं शुद्धस्फटिकमणि भूभृत्प्रतिभटं। सुधा सध्रीचीभिर् धुतिभिर्अ वदातत्रिभुवनम्।
अनन्तैस्त्रय्यन्तैर् अनुविहित हेषा हलहलं। हताशेषावद्यं हयवदन मीडी महि महः॥
समाहारस्साम्नां प्रतिपदमृचां धाम यजुषां। लयः प्रत्यूहानां लहरि विततिर्बोधजलधेः।
कथा दर्पक्षुभ्यत् कथककुल कोलाहलभवं। हरत्वन्तर्ध्वान्तं हयवदन हेषा हलहलः॥
प्राची सन्ध्या काचिदन्तर् निशायाः। प्रज्ञादृष्टेरञ्जन श्रीरपूर्वा।
वक्त्री वेदान् भातु मे वाजि वक्त्रा। वागीशाख्या वासुदेवस्य मूर्तिः॥
विशुद्ध विज्ञान घन स्वरूपं। विज्ञान विश्राणन बद्ध दीक्षम्।
दयानिधिं देहभृतां शरण्यं। देवं हयग्रीवम् अहं प्रपद्ये॥
अपौरुषेयैर् अपि वाक्प्रपञ्चैः। अद्यापि ते भूति मदृष्ट पाराम्।
स्तुवन्नहं मुग्ध इति त्वयैव। कारुण्यतो नाथ कटाक्षणीयः॥
दाक्षिण्य रम्या गिरिशस्य मूर्तिः। देवी सरोजासन धर्मपत्नी।
व्यासादयोऽपि व्यपदेश्य वाचः। स्फुरन्ति सर्वे तव शक्ति लेशैः॥
मन्दोऽभविष्यन् नियतं विरिञ्चो। वाचां निधे वञ्चित भाग धेयः।
दैत्यापनीतान् दययैव भूयोऽपि। अध्यापयिष्यो निगमान् न चेत् त्वम्॥
वितर्क डोलां व्यवधूय सत्वे। बृहस्पतिं वर्तयसे यतस्त्वम्।
तेनैव देव त्रिदशेश्वराणाम्। अस्पृष्ट डोलायित माधिराज्यम्॥
अग्नोउ समिद्धार्चिषि सप्ततन्तोः। आतस्थिवान् मन्त्रमयं शरीरम्।
अखण्ड सारैर् हविषां प्रदानैः। आप्यायनं व्योम सदां विधत्से॥
यन्मूलमीदृक् प्रतिभाति तत्वं। या मूलमाम्नाय महाद्रुमाणाम्।
तत्वेन जानन्ति विशुद्ध सत्वाः। त्वाम् अक्षराम् अक्षर मातृकां ते॥
अव्याकृताद् व्याकृत वानसि त्वं। नामानि रूपाणि च यानि पूर्वम्।
शंसन्ति तेषां चरमां प्रतिष्टां। वागीश्वर त्वां त्वदुपज्ञ वाचः॥
मुग्धेन्दु निष्यन्द विलोभ नीयां। मूर्तिं तवानन्द सुधा प्रसूतिम्।
विपश्चितश्चेतसि भावयन्ते। वेला मुदारामिव दुग्ध सिन्धोः॥
मनोगतं पश्यति यः सदा त्वां। मनीषिणां मानस राज हंसम्।
स्वयं पुरोभाव विवादभाजः। किंकुर्वते तस्य गिरो यथार्हम्॥
अपि क्षणार्धं कलयन्ति ये त्वां। आप्लावयन्तं विशदैर् मयूखैः।
वाचां प्रवाहैर् अनिवारितैस्ते। मन्दाकिनीं मन्दयितुं क्षमन्ते॥
स्वामिन् भवद्ध्यान सुधाभिषेकात्। वहन्ति धन्याः पुलकानुबन्धम्।
अलक्षिते क्वापि निरूढ मूलं। अङ्गेष्विवानन्दथुम् अङ्कुरन्तम्॥
स्वामिन् प्रतीचा हृदयेन धन्याः। त्वद्ध्यान चन्द्रोदय वर्धमानम्।
अमान्त मानन्द पयोधिमन्तः। पयोभिरक्ष्णां परिवाहयन्ति॥
स्वैरानुभावास् त्वदधीन भावाः। समृद्ध वीर्यास् त्वदनुग्रहेण।
विपश्चितो नाथ तरन्ति मायां। वैहारिकीं मोहन पिञ्छिकां ते॥
प्राङ् निर्मितानां तपसां विपाकाः। प्रत्यग्र निश्श्रेयस संपदो मे।
समेधिषीरंस्तव पाद पद्मे। संकल्प चिन्तामणयः प्रणामाः॥
विलुप्त मूर्धन्य लिपिक्र माणां। सुरेन्द्र चूडापद लालितानाम्।
त्वदंघ्रि राजीव रजः कणानां। भूयान् प्रसादो मयि नाथ भूयात्॥
परिस्फुरन् नूपुर चित्रभानु। प्रकाश निर्धूत तमोनुषङ्गाम्।
पदद्वयीं ते परिचिन् महेऽन्तः । प्रबोध राजीव विभात सन्ध्याम्॥
त्वत् किङ्करा लंकरणो चितानां। त्वयैव कल्पान्तर पालितानाम्।
मञ्जुप्रणादं मणिनूपुरं ते। मञ्जूषिकां वेद गिरां प्रतीमः॥
संचिन्तयामि प्रतिभाद शास्थान्। संधुक्षयन्तं समय प्रदीपान्।
विज्ञान कल्पद्रुम पल्लवाभं। व्याख्यान मुद्रा मधुरं करं ते॥
चित्ते करोमि स्फुरिताक्षमालं। सव्येतरं नाथ करं त्वदीयम्।
ज्ञानामृतो दञ्चन लम्पटानां। लीला घटी यन्त्र मिवाश्रितानाम्॥
प्रबोध सिन्धोररुणैः प्रकाशैः। प्रवाल सङ्घात मिवोद्वहन्तम्।
विभावये देव सपुस्तकं ते। वामं करं दक्षिणम् आश्रितानाम्॥
तमांसि भित्वा विशदैर्मयूखैः। संप्रीणयन्तं विदुषश्चकोरान्।
निशामये त्वां नव पुण्डरीके। शरद्घने चन्द्रमिव स्फुरन्तम्॥
दिशन्तु मे देव सदा त्वदीयाः। दया तरङ्गानुचराः कटाक्षाः।
श्रोत्रेषु पुंसाम् अमृतं क्षरन्तीं। सरस्वतीं संश्रित कामधेनुम्॥
विशेष वित्पारिष देषु नाथ। विदग्ध गोष्ठी समराङ्गणेषु।
जिगीषतो मे कवितार्कि केन्द्रान्। जिह्वाग्र सिंहासनम् अभ्युपेयाः॥
त्वां चिन्तयन् त्वन्मयतां प्रपन्नः। त्वामुद्गृणन् शब्द मयेन धाम्ना।
स्वामिन् समाजेषु समेधिषीय। स्वच्छन्द वादाहव बद्ध शूरः॥
नाना विधानामगतिः कलानां। न चापि तीर्थेषु कृतावतारः।
ध्रुवं तवानाथ परिग्रहायाः। नवं नवं पात्रमहं दयायाः॥
अकम्पनीयान् यपनीति भेदैः। अलंकृषीरन् हृदयं मदीयम्।
शङ्का कलङ्का पगमोज्ज्वलानि। तत्वानि सम्यञ्चि तव प्रसादात्॥
व्याख्या मुद्रां करसरसिजैः पुस्तकं शङ्क चक्रे। बिभ्रद् भिन्नस्फटिक रुचिरे पुण्डरीके निषण्णः।
अम्लानश्रीर् अमृत विशदैर् अंशुभिः प्लावयन् मां। आविर्भूया दनघ महिमा मानसे वाग धीशः॥
वागर्थ सिद्धिहेतोः। पठत हयग्रीव संस्तुतिं भक्त्या।
कवितार्किक केसरिणा। वेङ्कट नाथेन विरचिता मेताम्॥ ३३ ॥
॥ इति श्रीहयग्रीवस्तोत्रं समाप्तम्॥
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आपका कर्तव्य ही धर्म है, प्रेम ही ईश्वर है, सेवा ही पूजा है, और सत्य ही भक्ति है। : ब्रज महाराज दिलीप तिवारी जी