पर्वतराज गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति कैसे हुई?

पर्वतराज गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति कैसे हुई?

पर्वतराज गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति कैसे हुई? : बहुलाश्व ने पूछा- देवर्षे! यह बड़े आश्चर्य की बात है कि गोवर्धन पर्वतों के राजा हैं और श्रीहरि को अत्यंत प्रिय हैं। इसके समान न तो इस पृथ्वी पर और न ही स्वर्ग में कोई दूसरा तीर्थ है। महामते! आप श्रीहरि के हृदय हैं। तो अब बताइये ये गिरिराज श्री कृष्ण के वक्ष:स्‍थल से कब प्रकट हुए।

श्रीनारदजी ने कहा- ‘राजन! महामते! गोलोक की कथा सुनो- यह श्रीहरि की मूल लीला से सम्बन्धित है और मनुष्यों को चारों पुरुषार्थों- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कराने वाली है। परम पूर्ण भगवान श्री कृष्ण, जो प्रकृति से परे विद्यमान हैं, सर्वशक्तिमान, निराकार पुरुष और शाश्वत आत्मा हैं।

उनकी प्रतिभा अंतर्मुखी है. वह स्वयं प्रकाश का स्वामी, निरंतर रमणीय है, जिस पर अभिमानी और गणना करने वाले देवताओं का देवता ‘काल’ भी शासन करने में सक्षम नहीं है। राजन ! जिन पर माया भी अपना प्रभाव नहीं डाल सकती उन पर महत्तत्त्व और सत्य के गुण कैसे प्रभाव डाल सकेंगे?

राजन ! मन, चित्‍त, बुद्धि और अहंकार उनमें कभी प्रवेश नहीं करते। उन्होंने अपने दृढ़ संकल्प से साकार ब्रह्म को अपने स्वरूप में व्यक्त कर दिया। सबसे पहले विशालकाय शेषनाग प्रकट हुए, जिनका रंग कमल के फूल के समान सफेद था। उनकी गोद में परमपूज्य लोक गोलोक प्रकट हुआ, जिसे प्राप्त करने के बाद भक्तियुक्त मनुष्य इस लोक में कभी नहीं लौटता। तब त्रिपथगा गंगा असंख्य ब्रह्माण्डों के स्वामी गोलोकनाथ भगवान श्रीकृष्ण के चरणों से प्रकट हुईं।

नरेश्वर! तत्पश्चात् श्रीकृष्ण के बायें कंधे से सरिताओं में श्रेष्ठ यमुनाजी का प्रादुर्भाव हुआ, जो श्रृंगार-कुसुमों से उसी प्रकार सुशोभित हुई, जैसे छपी हुई पगड़ी के वस्त्र की शोभा होती है। तदनंतर भगवान श्रीहरि के दोनों गुल्फों (टखनों या घुट्ठियों) से हेमरत्नों से युक्त दिव्य रासमण्डल और विविध प्रकार के श्रृंगार-साधनों का प्रादुर्भाव हुआ। इसके बाद महात्मा श्रीकृष्ण की दोनों पिंडलियों से निकुंज प्रकट हुआ, जो सभा भवनों, आंगनों, गलियों और मण्डपों से घिरा हुआ था।

राजन! इस प्रकार, अपने सम्पूर्ण लोक की रचना करके अनगिनत ब्रह्मांडों के ईश्वर, परमात्मा, जगदीश, परिपूर्ण देव श्रीहरि वहाँ श्रीराधा के साथ सुशोभित हो गए। उस गोलोक में एक दिन सुंदर रासमण्डल में, जहाँ बजते हुए घुँघरालों का मधुर शब्द गूंज रहा था, जहाँ का आंगन सुंदर छत्र में लगी हुई मोतियों से अमृत की वर्षा होती रहने के कारण रस की बड़ी-बड़ी बूंदों से सुशोभित था, मालती के चँदों से स्वतः झरते हुए मधुरगंध से सरस और सुवासित था, जहाँ मृदंग, तालध्वनि, और वंशीनाद सब ओतप्रोत था, जो मधुर गानों के कारण परम मनोहर प्रतीत होता था और सुंदरियों के रासरस से परिपूर्ण और परम मनोरम था। उसके मध्यभाग में स्थित कोटिमनोजमोहन हृदय वल्लभ से श्रीराधा ने रसदान-कुशल कटाक्षपात करके गंभीर वाणी में कहा।

श्रीराधा बोलीं- जगदीश्‍वर ! यदि आप रास में मेरे प्रेम से प्रसन्न हैं तो मैं आपके सामने अपने मन की प्रार्थना व्‍यक्‍त करना चाहती हूँ।

श्रीभगवान बोले- प्रिये ! वामोरु !! तुम्‍हारे मन में जो इच्‍छा हो, मुझसे माँग लो। तुम्‍हारे प्रेम के कारण मैं तुम्‍हें अदेय वस्‍तु भी दे दूँगा।

श्रीराधा ने कहा– वृन्‍दावन में यमुना के तटपर दिव्‍य निकुंज पार्श्‍व भाग में आप रास रस के योग्‍य कोई एकान्‍त एवं मनोरम स्‍थान प्रकट कीजिये। देवदेव ! यही मेरा मनोरथ है।

नारदजी कहते हैं– राजन! तब ‘तथास्तु’ कहकर भगवान ने एकान्त-लीला के योग्य स्थान का चिन्तन करते हुए नेत्र-कमलों द्वारा अपने हृदय की ओर देखा। उसी समय गोपी-समुदाय के देखते-देखते श्रीकृष्ण के हृदय से अनुराग के मूर्तिमान अंकुर की भाँति एक सघन तेज प्रकट हुआ। रासभूमि में गिरकर वह पर्वत के आकर में बढ़ गया। वह सारा-का-सारा दिव्य पर्वत रत्नधातुमय था। सुंदर झरनों और कन्दराओं से उसकी बड़ी शोभा थी। कदंब, बकुल, अशोक आदि वृक्ष तथा लता-जाल उसे और भी मनोहर बना रहे थे। संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना करने के बाद भी ब्रह्मा की पूजा क्यों नहीं की जाती?

मंदार और कुन्दवृन्द से सम्पन्न उस पर्वत पर भाँति-भाँति के पक्षी कलरव कर रहे थे। विदेहराज! एक ही क्षण में वह पर्वत एक लाख योजना विस्तृत और शेष की तरह सौ कोटि योजन लंबा हो गया। उसकी ऊँचाई पचास करोड़ योजन की हो गयी। पचास कोटि योजन में फैला हुआ वह पर्वत सदा के लिए गजरा के समान स्थित दिखायी देने लगा। मैथिल! उसके कोटि योजन विशाल सैकड़ों शिखर दीप्तिमान होने लगे।

उन शिखरों से गोवर्धन पर्वत उसी प्रकार सुशोभित हुआ, मानो सुवर्णमय उन्नत कलशों से कोई ऊँचा महल शोभा पा रहा हो। कोई-कोई विद्वान उस गिरि को गोवर्धन और दूसरे लोग ‘शतश्रृंग’ कहते हैं। इतना विशाल होने पर भी वह पर्वत मन से उत्सुक-सा होकर बढ़ने लगा। इससे गोलोक भय से विहवल हो गया और वहाँ सब ओर कोलाहल मच गया। यह देख श्रीहरि उठे और अपने साक्षात हाथ से शीघ्र ही उसे ताड़ना दी और बोले–

‘अरे! क्यों इस प्रच्‍छन्न रूप की वृद्धि हो रही है? क्या सम्‍पूर्ण लोक को ढका हुआ है? क्या वे यहाँ निवास नहीं करना चाहते? श्रीहरि ने उसे शांत करते हुए कहा – उसकी वृद्धि को रोक दिया। श्रीराधा ने उस उत्‍तम पर्वत के प्रकट होते ही बड़ी खुशी महसूस की। राजन! वे उसके एकांत स्थल में श्रीहरि के साथ सुखद समय बिताने लगीं। नित्य सूर्य पूजा कैसे करनी चाहिए?

इस प्रकार, यह गिरिराज सीधे भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से इस व्रजमण्‍डल में आया है। यह सर्वतीर्थ स्थान है। इस श्रेष्‍ठ गिरि ने लता-कुंजों से श्‍याम रंग धारण किया है, और देवताओं को भी प्रिय है। गोवर्धन ने द्रोणाचार्य की पत्‍नी के गर्भ से भारत के पश्चिमी भाग में प्रविष्‍ट होकर भारत की प्रसिद्धि को बढ़ाया है। राजन्! इस गिरिराज को ही सर्वतीर्थ कहा गया है। उसे आना पड़ेगा खाटू में दोबारा हिंदी भजन


पौराणिक मान्यताओं के अनुसार : भगवान श्रीकृष्ण ने इंद्र के क्रोध से गोकुलवासियों की रक्षा के लिए अपनी छोटी उंगली पर गोवर्धन पर्वत को उठा लिया था। इस घटना के बाद से ही गोवर्धन पर्वत को “गिरिराज महाराज” के नाम से जाना जाता है। गोवर्धन पर्वत को “गिरिराज पर्वत” भी कहा जाता है। मान्यता है कि पांच हजार वर्ष पहले यह पर्वत 30,000 मीटर की ऊंचाई पर था, लेकिन अब शायद 30 मीटर ही बचा है।

पुलस्त्य ऋषि के श्राप के कारण यह पर्वत लगातार घटता जा रहा है। गोवर्धन पर्वत और इसके आस-पास के क्षेत्र को “ब्रज भूमि” भी कहा जाता है। सदियों से, भक्तजन गिरिराज जी की परिक्रमा करने यहाँ आते रहे हैं। यह 7 कोस की परिक्रमा लगभग 21 किलोमीटर की है। मान्यता है कि गोवर्धन पर्वत के हर छोटे-बड़े पत्थर में श्री कृष्ण का वास है।

यहाँ तक माना जाता है कि जो व्यक्ति गोवर्धन पर्वत की यात्रा करता है, उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। साथ ही, यह भी माना जाता है कि जो लोग इस परिक्रमा को पूरा करते हैं, उन्हें सुख-शांति का आशीर्वाद मिलता है और उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। गोवर्धन पर्वत, जिसे “माउंट गोवर्धन” और “गिरिराज” भी कहा जाता है, भारत के उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में स्थित है।

यह पवित्र हिंदू स्थल वृन्दावन से लगभग 21 किलोमीटर (13 मील) दूर है। हर दिन, दुनिया भर से श्रद्धालु इस स्थान पर परिक्रमा करने आते हैं। गुरु पूर्णिमा और गोवर्धन पूजा के पवित्र अवसरों पर एक बड़ी भीड़ देखी जा सकती है। इस परिक्रमा की लंबाई लगभग 23 किलोमीटर है, जिसे पूरा करने में लगभग 5-6 घंटे लगते हैं।

प्रत्येक महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी से पूर्णिमा तक इस परिक्रमा की यात्रा की जा सकती है। इस परिक्रमा में कुसुम सरोवर, चकलेश्वर महादेव, जतीपुरा, दानघाटी, पूंछरी का लौठा, मानसी गंगा, राधाकुण्ड, उद्धव कुण्ड आदि स्थान शामिल हैं।

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